रात बहुत हो चुकी थी लेकिन अन्नमदेव अभी सोये नहीं थे। उनकी आँखों के
आगे रह रह कर उस वीरांगना की छवि उभर रही थी जिसनें आज के युद्ध का स्वयं नेतृत्व
किया। नीले रंग का उत्तरीयांचल पहने हुए वह वीरांगना शरीर पर सभी युद्ध-आभूषण कसे
हुए थी जिसमें भारी भरकम कवच एवं वह लौह मुकुट भी सम्मिलित था जिसमें शत्रु के
तलवारों के प्रहार से बचने के लिये लोहे की ही अनेकों कडिया कंधे तक झूल रही थीं।
वीरांगना नें अपने केश खुले छोड दिये थे तथा उसकी प्रत्येक हुंकार दर्शा रही थी
जैसे साक्षात महाकाली ही युद्ध के मैदान में आज उपस्थित हुई हैं। अन्नमदेव हतप्रभ
थे; वे तो आज ही अपनी विजय तय मान कर चल रहे थे फिर यह
कैसा सुन्दर व्यवधान? उन्हें बताया गया था कि यह राजकन्या
चमेली बावी है जो नाग राजा हरीश्चंद देव की पुत्री है। अन्नमदेव पुन: उस दृश्य को
आँखों के आगे सजीव करने लगे जब युद्धक्षेत्र में राजकुमारी चमेली बावी अपनी दो
अन्य सहयोगिनियों झालरमती नायकीन तथा घोघिया नायिका के साथ काकतीय सेना पर टूट पडी
थीं। इतना सुव्यवस्थित युद्ध संचालन कि अपनी विजय को तय मान चुकी सेना घंटे भर के
संघर्ष में ही तितर-बितर हो गयी और स्वयं अन्नमदेव पराजित तथा सैनिक सहायता के
लिये प्रतीक्षारत तम्बू में ठहरे हुए यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब बारसूर और
किलेपाल से उनके सरदार अपनी अपनी सैन्य टुकडियों के साथ पहुँचे और पुन: एक जबरदस्त
हमला चक्रकोटय के अंतिम नाग दुर्ग पर किया जा सके।
अगले दिन की सुबह का समय और विचित्र स्थिति थी। आक्रांता सेना अपने
तम्बुओं में सिमटी हुई थी जबकि वीरांगना चमेली बावी अपने शस्त्र चमकाते हुए अपनी
सेना के साथ आर या पार के संघर्ष के लिये आतुर दिख रही थी। वह अन्नमदेव जिसने अब
तक गोदावरी से महानदी तक का अधिकांश भाग जीत लिया था एक वृक्ष की आड से मंत्रमुग्ध
इस राजकन्या को देख रहा था। चक्रकोट्य में आश्चर्य की स्थिति निर्मित हो गयी चूंकि
इस तरह काकतीय पलायन कर जायेगे सोचा नहीं जा सकता था। तभी एक घुडसवार सफेद ध्वज बुलंद
किये तेजी से आता दिखाई दिया। उसे किले के मुख्यद्वार पर ही रोक लिया गया। यह दूत
था जो कि अन्नमदेव के एक पत्र के साथ राजा हरिश्चन्द देव से मिलना चाहता था। राजा
घायल थे अत: दूत को उनके विश्रामकक्ष में ही उपस्थित किया गया। चूंकि सेना का
नेतृत्व स्वयं चमेली बावी कर रही थी अत: वे भी अपनी सहायिकाओं के साथ महल के भीतर
आ गयी।
बाहर अन्नमदेव के दिन की धड़कने बढी हुई थीं। वे प्रेम-पाश में बँध
गये थे। सारी रात हाँथ में तलवार चमकाती हुई चमेली बावी का वह आक्रामक-मोहक स्वरूप
सामने आता रहा और वे बेचैन हो उठते। यह युवति ही उनकी नायिका होने के योग्य
है....। केवल रूप ही क्यों वीरता एसी अप्रतिम कि जिस ओर तलवार लिये उनका अश्व बढ
जाता मानो रक्त की होली खेली जा रही होती। राजकुमारी चमेली नें कई बार अन्नमदेव की
ओर बढने का प्रयास भी किया था किंतु काकतीय सरदारों नें इसे विफल बना दिया। तथापि
एक अवसर पर वे अन्नमदेव के अत्यधिक निकट पहुँच गयी थी। अन्नमदेव नें तलवार का वार
रोकते हुए वीरांगना की आँखों में प्रसंशा भाव से क्या देखा कि बस उसी के हो कर रह
गये। काजल लगी हुई जो बडी-बडी आखें आग्नेय हो गयी थीं वे अब बहुत देर तक अपलक ही
रह गये अन्नमदेव की आखों का स्वप्न बन गयी थी।
“महाराज! दूत आने की आज्ञा चाहता है।” द्वारपाल
नें तेलुगू में तेज स्वर से उद्घोषणा की। अन्नमदेव के शिविर से दूत को भीतर भेजने
का ध्वनि संकेत दिया गया। अन्नमदेव आश्वस्त थे कि वे जो चाहते हैं वही होगा।
हरिश्चंददेव के अधिकार मे केवल गढिया, धाराउर, करेकोट और गढचन्देला के इलाके ही रह गये थे; यह
अवश्य था कि भ्रामरकोट मण्डल के जिनमें मरदापाल, मंधोता,
राजपुर, मांदला, मुण्डागढ,
बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ,
राजगढ, भेजरीपदर आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं;
से कई पराजित नाग सरदार अपनी शेष सन्य क्षमताओं के साथ हरीश्चंद देव
से मिल गये थे तथापि अब बराबरी की क्षमताओं का युद्ध नहीं रह गया था।
‘क्यों मौन हो पत्रवाहक?” अन्नमदेव नें बेचैनी
से कहा। वे अपने मन का उत्तर सुनना चाहते थे आखिर प्रस्ताव ही मनमोहक बना कर भेजा
गया था। हरिश्चंददेव से संधि की आकांक्षा के साथ अन्नमदेव नें कहलवाया था कि “बस्तर राज्य की सीमा चक्रकोट से पहले ही समाप्त हो जायेगी तथा आपको काकतीय
शासकों की ओर से हमेशा अभय प्राप्त होगा। चक्रकोट पर हुए किसी भी आक्रमण की स्थिति
में भी आपको बस्तर राज्य से सहायता प्रदान की जायेगी.....राजा हरिश्चंददेव के साथ
संधि की केवल एक शर्त है कि वे अपनी पुत्री राजकुमारी चमेली बावी का विवाह हमारे
साथ करने के लिये सहमत हो जायें”।
“क्या कहा राजा हरिश्चंद नें?” अन्नमदेव नें
इस बार स्वर को उँचा कर बेचैन होते हुए पूछा।
“जी राजा नें कहा कि अपनी बेटी के बदले उन्हें किसी
राज्य की या जीवन की कामना नहीं है”। पत्रवाहक नें दबे स्वर
में कहा।
“और कोई विशेष बात?” अन्नमदेव आवाक थे।
“जी राजकुमारी नें अभद्रता का व्यवहार किया।”
“क्या कहा उन्होंने?”
“.....उन्होंने कहा कि स्त्री को संधि की वस्तु समझने वाले अन्नमदेव
का विवाह प्रस्ताव मैं ठुकराती हूँ”।
“ओह” अन्नमदेव के केवल इतना ही कहा और मौन हो
गये। यह तो एक कपोत का बाज को ललकारने भरा स्वर था; नागराजा
का इतना दुस्साहस कि जली हुई रस्सी के बल पर अकड रहा है? “....और यह राजकुमारी स्वयं को आखिर क्या समझती हैं? अब
आक्रमण होगा। विजय के चिन्ह स्वरूप बलात हरण किया जायेगा और मैं उस
मृगनयनी-खड़्गधारिणी से विवाह करूंगा”। अन्नमदेव की भँवे
तनने लगीं थी।
सुबह होते ही युद्ध की दुंदुभि बजने लगी। दोनों ओर की सेनायें
सुसजित खडी थीं। हरिश्चंददेव घायल होने के बाद भी अपने हाथी पर बैठ कर धनुष थामे
अपने साथियों सैनिको का उत्साह बढा रहे थे। चमेली बावी नें सीधे उस सैन्यदल पर
धावा बोलने का निश्चिय किया था किस ओर आक्रांता अन्नमदेव होंगे। यद्यपि आक्रांताओं
नें भी भीषण तैयारी कर रखी थी। हरिश्चंद देव की कुल सैन्य क्षमता से कई गुना अधिक
सैनिकों नें बारसूर, किलापाल और करंजकोट की ओर से चक्रकोट्य
को चेर लिया था। भीषण संग्राम हुआ; नाग आहूतियाँ देते रहे और
अन्नमदेव बेचैनी के साथ युद्ध के परिणाम तक पहुँचने की प्रतीक्षा करता रहा। आज कई
बार आमने सामने के युद्ध में चमेली बावी नें उसे अपने तलवार चालन कौशल का परिचय
दिया था। एसी प्रत्येक घटना अन्नमदेव के भीतर राजकुमारी चमेली के प्रति उसकी
आसक्ति को बलवति करती जा रही थी। नहीं; अब युद्ध अधिक नहीं
खीचा जाना चाहिये....अन्नमदेव अचूक धनुर्धर थे। धनुष मँगवाया गया तथा अब उन्होंने
हरिश्चंददेव को निशाना बनाना आरंभ कर दिया। वाणों के आदान-प्रदान का दौर कुछ देर
चला। तभी एक प्राणघातक वाण हरिश्चंद देव की छाती में आ धँसा। अन्नमदेव नें अब कि
उस महावत को भी निशाना बनाया जो हरिश्चंद देव का हाथी युद्ध भूमि से लौटाने की
कोशिश कर रहा था। नाग सेनाओं में हताशा और भगदड मच गयी। राजकुमारी नें स्थिति का
अवलोकन किया और उन्हें पीछे हट कर नयी रणनीति बनाने के लिये बाध्य होना पड़ा। आनन
फानन में राजकुमारी चमेली का तिलक कर उन्हें चक्रकोटय जी शासिका घोषित कर दिया गया
यद्यपि इस समय केवल गिनती के सैनिक ही जयघोष करने के लिये शेष रह गये थे। बाहर
युद्ध जारी था तथा अनेको वीर नाग सरदार अपनी नयी रानी तक अन्नमदेव की पहुँच को
असंभव किये हुए थे। अपनी मनोकामना की पूर्ति में इस विलम्ब से कुपित अन्नमदेव नाग
नें नाग सरदारो के पीछे अपने सैनिकों के कई कई जत्थे छोड़ दिये। भगदड मच गयी और
अनेक सरदार व नाग सैनिक अबूझमाड़ की ओर खदेड दिये गये।
अब अन्नमदेव की विजयश्री का क्षण था। पत्थर निर्मित किले की पहले ही
ढहा दी गयी दीवार से भीतर वे सज-धज कर तथा हाथी में बैठ कर प्रविष्ठ हुए। चारो ओर
सन्नाटा पसरा हुआ था। नगरवासी मौन आँखों से अपने नये शासक को देख रहे थे। सैनिक
तेजी से आगे बढते हुए एक एक भवन और प्रतिष्ठान पर कब्जा करते जा रहे थे। राजकुमारी
को गिरफ्तार कर प्रस्तुत करने के लिये एक दल को आगे भेजा गया था। अन्नमदेव चाहते
थे कि राजकन्या का दर्पदमन किया जाये और तब वे उसके साथ सबके सम्मुख इसी समय विवाह
करें।
“क्या हुआ सामंत शाह, लौट आये?...कहाँ हैं राजकुमारी चमेली?”
“.....”
“सबको साँप क्यों सूंघ गया है?क्या हुआ?”
अन्नमदेव नें अपने सरदार सामंत शाह और उसके साथी सैनिकों के चेहरे
के मनोभावों को पढने की कोशिश करते हुए कहा।
“...जौहर राजा साहब। राजकुमारी अपनी दोनो मुख्य सहेलियों झालरमती और
घोगिया के साथ मेरे सामने ही आग में कूद पडी और अपने प्राण दे दिये”।
“तो तुमने बचाने की कोशिश नहीं की.....।“ बेचैनी
में शब्दों नें अन्नमदेव का साथ छोड दिया था।
“...राजकुमारी आग में प्रवेश करने से पहले शांत थी, वे मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने मुझे सम्बोधित किया और कहा कि मैं जा कर
अपने राजा से कह दूं कि आक्रमणकारी बल से किसी की जमीन तो हथिया सकते हैं लेकिन मन
और प्रेम हथियारों से हासिल नहीं होते....।“
हाथी अब उस ओर मोड दिया गया जिस ओर से धुँआ उठ रहा था। राजा की नम
आँखे कोई नहीं देख सका। एसी पराजय की कल्पना भी अन्नमदेव ने नहीं की थी।
साभार -
http://rajputworld.blogspot.in/2013/07/blog-post_4696.html
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