शोभना सम्मान-2012

Monday, August 20, 2012

सफलता




सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता है, तो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता। अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी। 

ये त्रिगुण जिसके पास हैं, वह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशु, लेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व की, यानी राजा बनने की क्षमता। 
एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्चा  माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के उस काफिले पर हमला किया। भेडें़ भागीं, तो शेर का बच्चा भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ गया। 

उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर है, सबसे अलग, सबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है। 
संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगी, पर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा। शास्त्रों में लिखा है- सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम्। योर्थै शुचिहिं स शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:।। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि सर्वोपरि है। 
वास्तव में वही शुद्ध है जो धन से शुद्ध है। जल और मिट्टी की शुद्धि कोई शुद्धि नहीं है। धन कमाने के मामले में हमारे ये त्रिगुण हमें बार-बार सामान्य लोगों की भीड़ से अलग, विशिष्ट बनाएंगे। अब जो समय है वह माचिस से आग जलाने का नहीं रहा। अब तो अपने व्यक्तित्व के तेज से प्रकाश फैलाने का वक्त है। 

किसी भी संस्थान में इंसानों का ढेर होगा। उसमें यदि पूरे और सलामत आप दिखना चाहें तो लगातार अपने इन त्रिगुणों पर टिके रहिए और योग-प्राणायाम को थोड़ा समय जरूर दीजिए।

पते की बात
यह बात सच है कि अपने विषय में सच्चाई से कुछ कहना प्राय: कठिन होता है, क्योंकि स्वयं के अंदर दोष देखना सभी को अप्रिय लगता है, लेकिन आपके द्वारा अपने दोषों का अनदेखा करना दूसरों को अप्रिय लगता है। 
 
लेखक : श्री मनोज तोमर 


Friday, August 17, 2012

संपन्नों को आरक्षण क्यों?





ज़ादी के बाद भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति एवं कमजोर वर्गों के लिए १० वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी थी, लेकिन आज़ादी के ६० वर्ष के बाद भी यह प्रावधान समाप्त नहीं हुआ. किसी पार्टी ने अथवा सरकार ने इसे हटाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. वरन दिनोदिन इसकी मांग और भी बढ़ती  ही जा रही है. आज आरक्षण की सीमा ५० प्रतिशत तक हो गयी है. आज स्थिति यह है कि हर वर्ग/हर जाति के लोग आरक्षण कि मांग कर रहे है. यह प्रावधान जातियों में विभाजन तथा विभेद पैदा करती है. इसका सीधा अर्थ यही है कि अनुसूचित जाति/ जनजाति, पिछड़ा, अतिपिछडा वर्ग में जन्म लेने पर वह विशेष सुविधा का अधिकारी बन जाता है और सवर्ण जाति में जन्म लेने पर वह अधिकार से वंचित हो जाता है. देश कि आज़ादी कि लडाई में न केवल इन्ही जातियों के लोगों ने लडाई लड़ी थी ऐसा नहीं है बल्कि सवर्ण जाति के लोगों ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया था. ऐसी स्थिति में यह असमानता और विभेद क्यों? डॉ.भीमराव अम्बेदकर ने आरक्षण पर संविधान सभा में ३० नवम्बर,१९४८ के अपने भाषण में विस्तार से चर्चा करते हुए कहा था कि समानता एवं आरक्षण में तालमेल बनाये रखने के आधार पर आरक्षण कि सीमा ५० प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती.उन्होंने कहा था कि इसका उद्देश्य समाज में समानता लाना है. इसे अनंत काल तक लागू नहीं रखा जा सकता. इसी को ध्यान में रखते हुए १० वर्ष कि सीमा निर्धारित कि गयी थी. निश्चित रूप से समाज के वंचित और शोषित समूह को न्याय मिलना चाहिए, परन्तु ऐसा करते समय यह देखा जाये कि संपन्न एवं सक्षम समूह ही आरक्षण का लाभ पीढ़ी-दर-पीढ़ी न उठा ले. इसका लाभ उन्हें ही मिलना चाहिए जो वास्तव में हक़दार हैं न कि उन्हें जो इसका लाभ उठाकर संपन्नता के दायरे में आ चुके है. आरक्षण का लाभ एक परिवार को एक ही बार मिलना चाहिए. आज इस बात की जाँच का विषय है कि सही मायने में आरक्षण जिन्हें मिलना चाहिए वे इससे आज भी वंचित हैं. दूसरी तरफ आरक्षण की व्यवस्था से मेधावी छात्रों का मेधा कुंठित हो रहा है. एक तरफ ९० प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले सड़क पर धूल फांक रहे है तो दूसरी तरफ ४० अंक प्राप्त करने वाले ऐशो आराम की जिन्दगी जी रहे है. यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जा रही है. ऐसा किसी भी देश में देखने को नहीं मिलेगा. प्रतिभावान छात्र इधर-उधर भटकने को मजबूर है वही दूसरी ओर अयोग्य व्यक्ति सत्ता की कुर्सी के लिए मारा-मारी कर रहे है. यह एकदिन वर्ग संघर्ष का आधार बन जायेगा और देशवासी आपस में ही लड़ने को मजबूर होंगे. अतः इस विषय पर सभी पार्टियों को सोचना विचारना होगा. लोकसभा में इसपर खुली बहस हो तथा संविधान में संशोधन करके इसे समाप्त करना ही उचित कदम होगा.


द्वारा-  श्री नीरज  तोमर

Sunday, August 12, 2012

''राजपूतों की उपाधियाँ''


''राजपूतों की उपाधियाँ''

1. ठाकुर-- जिसके माता-पिता, दादा-दादी, सभी स्वर्गवासी हो चुके हैं और वह अपनी जमीन जायदाद का स्वयं स्वामी होता है. ठाकुर का अर्थ स्वामी होता है,मंदिर की मूर्तियाँ भी ठाकुर जी ही कहलाती हैं.

२. कुंवर-- जिसके माता-पिता में से कोई एक या दोनों जीवित हों.

३. भंवर-- जिसके दादा-दादी में से कोई एक या दोनों जीवित हों.

४. टवर -- जिसके परदादा या परदादी में से कोई एक या दोनों जीवित हों

आप अपनी स्तिथि के अनुसार उपाधि प्रयोग कर सकते हैं...कुंवर अमित सिंह

Saturday, August 11, 2012

जय क्षात्र धर्म


बारह बरस लौं कूकर जीवै, अरु तेरह लौं जियै सियार। 
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन कौ धिक्कार।।


महावीर महाराणा प्रताप

Thursday, August 9, 2012

कविता: यह कदम्ब का पेड़



यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।


रचनाकार:  सुभद्रा कुमारी चौहान
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