शोभना सम्मान-2012

Friday, November 30, 2012

क्षत्रिय गौरव फिर से बढ़ाने हेतु कुछ उपाय

    देश के स्वतंत्र होने से पूर्व क्षत्रिय समाज का अपना एक गौरव था, परन्तु स्वतंत्रता के बाद एक साजिश के जरिये हमारे समाज को बदनाम किया गया और जैसा कि आप सभी जानते हैं कि उस समय कांग्रेस का राज्य था, इसलिए ये समझना मुश्किल नहीं है कि वे कौन सी ताकतें थीं  जो हमारे क्षत्रिय समाज की तरक्की से डरती थीं. क्षत्रिय समाज को फिर से अपना सम्मान वापस पाने के लिए एक होना पड़ेगा और यह एकता केवल फेसबुक जैसीं सोशल साइटों से नहीं आ सकती. इसके लिए हमें जमीनी लड़ाई लड़नी होगी. हमारा अखिल भारतीय राजपूत युवा संघ बनाने का उद्देश्य उस जमीनी लड़ाई को लड़ना है और क्षत्रिय समाज को फिर से गौरवांवित करने के लिए निम्न बिंदुओं पर विचार करना होगा : -
१. आज हम (क्षत्रिय समाज) जिन विधायकों/ सांसदों को जिताकर लोक सभा/ विधानसभा में भेजते हें वे हमारे समाज के हित में न बोलकर मूक बाधित बन कर बैठे रहकर अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हें, ऐसे व्यक्तियों का हमें त्याग करना होगा. 
२. आरक्षण हमारे समाज के लिए अभिशाप है, इसका आधार जातिगत न होकर आर्थिक होना चाहिए. आज आरक्षण के लाभ से अनुसूचित / पिछड़ी जातियों के चंद पैसे वाले लोगों (क्रीमीलेयर वर्ग) के परिवारों ने खुद को समृद्ध बना लिया है. परन्तु जो गरीब लोग इसके हकदार हें वो ६० साल बाद भी लाभान्वित नहीं हो पाए हें. हमें इसे उन सभी गरीबों के लिए पहुँचाना है जो इसके सच्चे हक़दार हैं.
३.एक कहावत है: जो लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं, वे इतिहास रचने का सामर्थ्य नहीं रखते. इसलिए जरुरत है कि पाठ्यक्रम में महापुरुषों की जीवन गाथाओं को शामिल करना चाहिए, जिससे आने वाली पीढियाँ उनको और उनके योगदान को न भुला सकें.
४. आज राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की खातिर समाज को भिन्न वर्गों में बाँट रखा है, जो भविष्य क लिए बहुत घातक हो सकता है. जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बाद अनुसूचित / पिछडे बर्ग में आने वाली जातियां आज सवर्णों से भी आगे बढ़ गयी हें, फिर भी उनकी गणना अनुसूचित / पिछडे बर्ग में ही की जाती है और इस प्रकार समाज में असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है. हमें इसे संतुलित करना होगा. 

५. क्षत्रिय और मुस्लिम दोनों ही शासक रहे हें और दोनों में शासन करने के अपने-अपने  हुनर थे. इतिहास गवाह है कि क्षत्रियों ने राम राज्य को अपना आधार मान कर शासन किया जबकि अधिकांश मुस्लिम शासकों ने केवल अत्याचार ही किया है. फिर भी राजनीतिक पार्टियाँ मुस्लिमों को अनेकों सुविधायें देने में जुटी हैं क्योंकि ये एक मत होकर वोट देते हैं जबकि क्षत्रिय समाज पूर्णतया विभाजित है. अतः जरुरत है कि सभी क्षत्रिय एक जुट होकर एक मंच पे आयें और अपनी पहचान बनायें.
६. आज अनुसूचित/पिछड़ी जातियों के लोग एकजुट होकर अपने समाज को आगे बढाने के लिये राजनितिक पार्टियों की ताकत से प्रदेश और देश दोनों को अपने हिसाब से चलाने में सक्षम हें, परन्तु क्षत्रिय समाज के लोग अपने गोत्र/कुल के आपसी भेदभाव से अनुसूचित/पिछड़ी जाति की पार्टियों से जुड़कर उनकी ताकत को मजबूत कर रहे हैं. हमें अपने सभी मतभेद भुलाकर, इस विभाजित ताकत को एकजुट करके क्षत्रिय समाज की तरक्की में उपयोग करना चाहिये और वास्तव में यही समय की मांग है.

लेखिका- सुश्री शिखा सिंह 



Tuesday, November 27, 2012

क्षत्रिय वीर बालक पत्ता का स्मारक



       त्रु का जिसने खुली छाती से मुकाबला कियाउसी वीर की वेदना यहाँ सो रही है | शः शांत ! वह कहीं अंगडाई लेकर उठ खड़ी न हो पड़े| संसार के इस उपेक्षित एकांत में स्मृति आँख मिचोली खेल रही है| सदियों पहले यहाँ एक छोटा-सा बालक शत्रु से लड़ते हुए चिर निंद्रा में सो गया था | हाथियों से टकराता हुआ, तीखी तलवारों से खेल खेलता हुआ, रक्त से लथपथ होकर भी जब मेवाड़ की स्वतंत्रता को नही बचा सकातब मृत्यु ने क्षत्रिय जाति को उस दिन उलाहना दिया था - "लोग मुझे क्रूर कहते हैं, किंतु यह मेरा दुर्भाग्य है, कि हे क्षत्रिय जाति तू मुझसे भी कितनी क्रूर हैजो ऐसे सपूतों से अपनी कोख खाली कर मुझे सौंपती रही है| मुझे निर्दयी कहा जाता है, किंतु मेरी गोद में जो भी आता है, मैं उसे थपथपा कर चिर निंद्रा में सुला देती हूँ और हे क्षत्रिय जाति तू है जो उदारता की जननी कहलाती है, किंतु तेरी गोद में जो आता हैउसे ही तू आग में झोंक देती है|" मृत्यु के उलाहने का क्षत्रिय जाति ने  कोई उत्तर नहीं दिया| उसे उत्तर देने का समय ही नहीं था| यह संस्कृति और क्षत्रिय जाति का अस्तित्व ही उसका उत्तर है | तब मृत्यु ने उदास होकर इतिहासकारों से प्रार्थना की थी, "मत भूलना स्वतंत्रता के अमर पुजारियों में इस छोटे बालक का नाम लिखना कभी मत न भूलना !"
   
     मृत्यु कहती गई और क्षत्रिय जाति की कोख खाली होती गई इतिहासकारों की कलम चलती गईतीनों में होड़ चल रही थी | कोई नहीं थका कोई नही थका | थका तो केवल इतिहासजो उपेक्षा की गोद में पड़ा हुआ अपनी ही छाती के घावों पर कराह रहा है | हाँ इसी जगहजहाँ इतिहास कराह रहा हैकिसी दिन मृत्यु और कर्तव्य का पाणिग्रहण हुआ था | यज्ञ कुण्ड में होनहार की अन्तिम आहुति अग्नि के साथ अभी तक फड़क रही है | हथलेवा की मेहँदी अपमानित हुई सी विवाह मंडप में बिखरी पड़ी हुयी है। 
द्धारा- श्री भँवर सिंह चौहान 

Saturday, November 24, 2012

महाराजा भोज द्वारा निर्मित एशिया का सबसे बड़ा शिवलिंग


     भारत में भगवान शिव के बहुत सारे मंदिर स्थित हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जो एक गौरवशाली इतिहास तथा वैभव को समेटे हुए हैं। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में भी भोजपुर नामक एक कस्बे में भगवान शिव का एक मंदिर स्थित है जिसका अत्यंत विलक्षण इतिहास है। भोजपुर शिव मंदिर को भोजेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भोपाल से लगभग 30 किमी दूर स्थित है। यह मंदिर बहुत ही प्राचीन काल में बनाया गया था। इस मंदिर को उत्तर का सोमनाथ भी कहा जाता है। यह मंदिर भोजपुर में एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। माना जाता है कि मंदिर और शिवलिंग यहां राजा भोज द्वारा स्थापित किए गए थे। क्षत्रिय महाराजा भोज ने एक ही रात में एशिया के इस सबसे बड़े शिवलिंग का निर्माण करवाया था राजा भोज के बाद इस कस्बे और मंदिर का नाम उन्हीं के नाम पर रख दिया गया था।
     इस मंदिर का निर्माण लाल ग्रेनाइट के पत्थरों से किया गया है। मध्ययुगीन काल की शुरुआत में राजा भोज द्वारा भोजपुर की स्थापना की गई तथा भगवान शिव को समर्पित करते हुए यह मंदिर बनवाया गया। इसका निर्माण 1010-1053 ई. के दौरान किया गया था। इस मंदिर को बड़ी भव्यता के साथ बनाया गया है। यह अपनी वास्तुकला और अनूठे शिवलिंग के कारण प्रसिद्ध है। मंदिर को तीन भागों में विभाजित किया गया है और यह चार स्तंभों पर खड़ा है।

साभार:- श्री विवेक प्रताप सिंह



Thursday, November 22, 2012

बड़ों से पैर छुवाना अनुचित है




    मारे राजपूत समाज में परम्परा व रीतिरिवाजों के नाम पर गलत आचरण हो रहा है. मुझे पता चला है, कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं अन्य कई राज्यों में जहाँ भी अपने राजपूत समाज के लोग बस गये हैं. वहाँ पर परम्परा के नाम पर जब दामाद अपनी सुसराल आता है, तो उसके सास-ससुर और वो सभी सदस्य जो उसकी पत्नी से उम्र में या नाते में बङे हों वे सभी दामाद के पैर छूते हैं. जबकि होना यह चाहिए कि सास-ससुर जो कि माता पिता समान होते हैं उनके पैर दामाद छुए. अपने से उम्र व नाते मे बङे लोगो से पैर छुवाना उनका अपमान करना होता है।
    परम्परा व रितिरिवाजो के नाम पर यह गलत आचरण ठीक नही. यहाँ तक जब भानजा अपनी ननिहाल आता है तो मामा-मामी भानजे के पैर छूते हैं चाहे मामा उम्र में उसकी माँ से बङा क्योँ न हो बहन का बेटा अपने बेटे बराबर होता है. बेटे के पैर छूना गलत आचरण है सँस्कार कभी नही हो सकते हमेशा छोटो को बङो के पैर छूने चाहिए. 
   मैं हरियाणा राज्य का रहने वाला हूँ और राजस्थान के रीतिरिवाजों और परम्पराओं से भी अच्छी तरह से वाकिफ हूँ यहाँ ऐसा नहीं होता. यहाँ दामाद अपनी सुसराल जाता है, तो वह अपने सास ससुर के पैर छूता है और बड़ों का अभिवादन करता है और भान्जा भी जब ननिहाल आता है तो वो मामा मामी को खुद अभिवादन करके आर्शीवाद लेता है.
    अपनों से बड़ों से चरण स्पर्श करवाना तो दुनिया मे कहीँ भी नहीं बताया गया है और अगर किसी क्षत्रिय कुल में ऐसा हो रहा है, तो संस्कारपरम्परा व रीतिरिवाजों के नाम पर तो यह सामाजिक शर्म का विषय है और यह संस्कार तो कदाचित नहीं हो सकता.

लेखक- श्री शेखर सिंह तँवर
गुडगाँव, हरियाणा 

चित्र गूगल से साभार 

Wednesday, November 21, 2012

कसाब आखिर कैसे मरा?







    ज सुबह जब कसाब की फाँसी की खबर सुनी तो सोचा, कि फाँसी की पूरी प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई गयीफांसी देने के पहले आरोपी के वकील को सूचना दी जाती है और यदि आरोपी विदेश में हो तो उस देश के दूतावास को सूचना दी जाती है, कि फलाँ तारीख को मुजरिम को फाँसी दी जाएगी. जब राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका रद्द की जाती है, तो इसके बाद एक मजिस्ट्रेट फाँसी देने का आदेश जारी करता है. कसाब के केस में ऐसा क्यों नही हुआ?
कल तक जो सरकार ये कहती थी, कि अफजल गुरु और कसाब के पहले १७ लोगों की फ़ाइल पेंडिंग है, इसलिए जब इनका नम्बर आएगा तब इनको फाँसी होगी, लेकिन अचानक केन्द्र सरकार इस क्रम को क्यों भूल गयी ?
असल में कसाब को फाँसी हुई ही नहीं है. कसाब कल रात ८ बजे ही आर्थर रोड जेल में डेंगू से मर चुका था. जेल अधिकारियों ने आर. आर. पाटिल को इसकी सूचना दी. मच्छरों की मेहनत को अपने पक्ष में भुनाने की सोचकर केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार से मिलकर कसाब की फाँसी की झूठी खबर को फैला दिया. शायद यह देशवासियों को उल्लू बनाने का केन्द्र सरकार का नया हथकंडा है.
द्वारा - श्री जितेन्द्र प्रताप  सिंह



Monday, November 19, 2012

वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई के जन्मदिवस पर उन्हें नमन


क्षत्रिय एकता मंच की ओर से वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई के जन्मदिवस  पर उन्हें नमन इस विशेष अवसर पर प्रस्तुत है आदरणीय सुभद्रा कुमारी चौहान की यह अमर रचना...

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, 

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, 

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, 

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। 

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, 

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, 

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, 

बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। 
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, 

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, 

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, 

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़| 
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, 

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, 

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, 

सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में, 
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, 

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, 

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, 

रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। 
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, 

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, 

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, 

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। 
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, 

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, 

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, 

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। 
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, 

कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, 

उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? 

जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। 
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, 

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, 

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 

'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। 
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, 

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, 

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, 

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। 
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, 

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, 

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, 

मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, 
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, 

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, 

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, 

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। 
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, 

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, 

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, 

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। 
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, 

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, 

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, 

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। 
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, 

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, 

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, 

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। 
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, 

किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, 

घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, 

रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। 
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, 

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, 

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, 

हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, 
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, 

यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, 

होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, 

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। 
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


कवियित्री - स्वर्गीय सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान 


Friday, November 16, 2012

भ्रात्र प्रेम (भाई का प्यार)


     श्री भरत जी का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है। लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। भ्रात्र प्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे। भरत के समान शीलवान भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है। अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त करके श्री भरत को मद नहीं हो सकता।' चित्रकूट में भगवान श्री राम से मिलकर पहले श्री भरत उनसे अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रूचि कुछ और है तो भगवान की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं। नन्दिग्राम में तपस्वी जीवन बिताते हुए ये श्रीराम के आगमन की चौदह वर्ष तक प्रतीक्षा करते हैं। भगवान को भी इनकी दशा का अनुमान है। वे वनवास की अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरह को शान्त करते हैं। श्री रामभक्ति और आदर्श भ्रात्र प्रेम के अनुपम उदाहरण श्री भरत धन्य हैं। ..यही तो हैं ''बुलंद संस्कार''

द्वारा -  कुँवर अमित सिंह 


सीनियर साइंटिफिक ऑफिसर, हरियाणा.

आज़ादी के बाद क्षत्रिय समाज


    १५ अगस्त, १९४७ को मिली तथाकथित आज़ादी के बाद राष्ट्रीय एकता के व्यापक परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन क्षत्रिय राजाओं ने अपने तमाम पैत्रिक हक़-हकुकों को तिलांजलि देकर भारत की संप्रुभता में सम्मिलित होकर अपना सब-कुछ देश के लिए समर्पित कर दिया फिर भी तत्कालीन क्षत्रिय राजाओं के इस अभूतपूर्व त्याग को सराहने की बजाय एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत चरणबद्ध तरीके से प्रताड़ित करने का सिलसिला चलाया गया और हर स्तरपर न केवल क्षत्रिय नरेशों बल्कि समस्त क्षत्रिय समाज को पीछे धकेलने के साथ-साथ बदनाम करने का व्यापक कुचक्र चलाया गया. यही नहीं फिल्मों में ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर हमें अन्यायीअत्याचारी, सामंतवादीदकियानूसी और लोकतंत्र विरोधी बताकर सोची समझी साजिश के तहत हमारे विरुद्ध जनमानस के मन में विष का बीजारोपण करने का हर संभव प्रयास किया गया, जो आज भी बदस्तूर जारी है. 

    नौकरियों में आरक्षण लागूकर योग्य लोगों के लिए अवसर सीमित कर दिए गए हैं. इस प्रकार राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से हमे पहले ही धकेल दिया गया था, अब हमारी सीमित आर्थिक साधन भी छीन लिया गया. वर्तमान में जहाँ मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है तथा मौजूदा लूटतंत्र बनाम लोकतंत्र राजनैतिक प्रणाली के प्रशासन के रहमोकरम से अनैतिकता, मंहगाई और भ्रष्टाचार का बोलबाला सर्वत्र व्याप्त है, इससे क्षत्रिय समाज के समक्ष अनेक चुनौतियाँ खड़ी हो गयी है. राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर हमारे विस्तृत संगठन बल का अभाव है. परिणामस्वरूप हम राष्ट्र की कुल आवादी के लगभग १६ प्रतिशत से अधिक जनसँख्या का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद भी अपनी विशेष पहचान एवं सत्ता में उपस्थिति को बरकरार रखने में विफल किये जा रहे हैं. स्वतंत्रता के ६५ वर्ष के बाद भी शासन और नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया है. विकृत लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भरपूर योगदान करने के वाबजूद हमे योजनावद्ध तरीके से भूमिहीन एवं श्रीहीन किया गया तथा निरंतर चरित्र हनन के विषाक्त षड़यंत्र को झेलता यह क्षत्रिय समाज अब कुंठित होने लगा है. वर्तमान ठगतंत्रलूटतंत्र बनाम विकृत लोकतंत्र की राजनैतिक प्रणाली से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रहा है. गलत समझौते, झूठे आश्वासन, व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता तथा अन्याय की सीमा का उल्लंघन क्षत्रियों के वश की बात नहीं है. लेकिन वर्तमान व्यवस्था में कुछ सामंजस्य व समझौते अनिवार्य हो गए हैं, जिन्हें बारीकी से देखना और समझना क्षत्रियों का कर्तव्य है तभी हम विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे. हमें एकतावद्ध होकर अपनी लडाई जारी रखनी होगी. 
जय राजपूत एकता! जय भारत!

द्वारा- श्री ब्रिजेश सिंह 
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