शोभना सम्मान-2012

Monday, April 30, 2012

हे मातृभूमी तुझे नित नित वंदन करुँ मै.........!


हे मातृभूमी तुझे नित नित वंदन करुँ मै,
सारे अधिकार छिनने वालो का खंडन करुँ मै!
है दिल मेरा दरीया सा,
जिसपर है अनेक घाव!
तकलीफ जब होती है तुझको,
अपने आप बदलते है मेरे भाव!
तेरे गौरव का है मुझे अभिमान बडा,
तेरी रक्षा हेतु हुँ मै क्षितिज पर खडा!
हे मातृभूमी तुझे नित नित वंदन करुँ मै,
सारे अधिकार छिनने वालो का खंडन करुँ मै!
आज ये क्या हो रहा?
माँ रोती रही और बेटा सो रहा!
माँ कराहती रही और बेटा गाता रहा,
लगता है नही आज कोई माँ बेटे का नाता रहा!
हे मातृभूमी तुझे नित नित वंदन करुँ मै,
सारे अधिकार छिनने वालो का खंडन करुँ मै!
हुँ मै वतन का रखवाला,
हरदम हरपल उठती है मेरे सीने मे विप्लव की ज्वाला!
संसद मे लुट रही माँ की ईज्जत,
लगता है छोड दी है,
आज बेटे ने लज्जत!
महफिल मे आज मै गुँगा बहरा गा रहा,
नही है किसी के पास वक्त जो कोई मेरी बात को सून पा रहा!
याद कर उन वीरोँ को,
तोड दो भारत माँ की जंजीरोँ को!
हे मातृभूमी तुझे नित नित वंदन करुँ मै,
सारे अधिकार छिनने वालो का खंडन करुँ मै!
 
:-'अक्षय'कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

'न्याय का पर्याय'' मुंढाड चबूतरा

'न्याय का पर्याय'' मुंढाड चबूतरा , कलायत (हरियाणा)
शक संवत में मुंढाढ़ों के राजा साढ्देव ने कलायत को अपनी राजधानी बनाया और तीन सौ साठ गाँवों को अपने आधीन कर लिया.इसके बाद इसी वंश ने तीन सौ साठ गाँवों की छतीस बिरादरियों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए मुग़ल शाशक औरंगजेब के शाशनकाल में बड़े मुंढाड चबूतरे की नींव रखी गई .जब भी इन गाँवों में किसी भी जाति वर्ग का विवाद होता था तो इस चबूतरे को साक्षी मानकर विभिन्न गाँवों के प्रतिनिधियों की पंचायत होती थी और फैसले किये जाते थे यही कारण है की आज भी इस चबूतरे को न्याय का पर्याय माना जाता है और इसे पुराने ज़माने की कचहरी कहा जाता है. 

कविता: तूफानों की ओर घुमा दो नाविक पतवार

आज सिंधु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिंधु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार |

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार |
शिवमंगल सिंह ''सुमन''
जय जय वीर राजपूताना (कुंवर अमित सिंह)

Saturday, April 28, 2012

राणा प्रताप के घोडे से पड़ गया हवा का पाला था


लेखक- श्याम नारायण पांडेय 

      

हरियाणा के जुझारु वंश मडाडां की गाथा




         सैकड़ों वर्ष पूर्व मडाड(कलायत) की सिमाएँ उत्तर मे अलावला गांव,उत्तर पश्चिम मे क्योडक,पश्चिम मे वग्धर नदी,दक्षिण मे हार,अहर और कुदाना,दक्षिण पुर्व मे बडौली,पुर्व मे यमुना नदी और उत्तर मे ऊंचा समाना-कमीपुरी होती हुई करनाल तक फैली हुई थी!ईनके उत्तर और पुर्व मे पुंडीर,दक्षिण मे तंवर और पश्चिम मे भाटी राज्य थे.मडाड वंश बहुत ही वीर,त्यागी और कट्टर देशभक्त था.ईनका कुरुक्षेत्र मे रहना मानो मनिकंचन का सहयोग था.क्योकी यह भुमी पुरातन काल से ही त्याग और बलिदान का प्रतीक रही है.यही एक मात्र कारण है की ईस वंश ने हमेशा राष्ट्रीय संग्रामोँ मे बढ-चढकर साथ देकर अपने युद्दकौशल,वीरता अपितु अपने साहस का प्रमाण दिया है.तुर्क,मुगल और शकहुनोँ के अनेक आक्रमण ईस धरा ने झेले है और हर युद्द मे ईस वंश ने अपने राष्ट्रप्रेम का अप्रतीम उदाहरण दिया है.गझनवी ने यहाँ कइ बार आक्रमण किया है.जितने भी राजा महाराजा दिल्ली गए,सभी यहाँ से गुजरते हुए गये है...कलायत के लोकजीवन मे आज भी लुटमार प्रसिद्द है.रोजमर्रा के आक्रमणोँ के चलते ईस वंश का ईतिहास नष्ट हो गया.

                                                   आज भी देश के अन्य भागोँ की अपेक्षा यहाँ उजडे हुए गांव अधिक मात्रा मे है.ईन आक्रमणोँ की वजह से ईस वंश को बहुत ही हानी हुई है एवं क्षती उठानी पडी है.ईसके विपरीत भी उन्होने विदेशी शत्रुओँ एवं आक्रमण कारीयोँ के सामने विवशता नही दिखाई.तरावडी की पहले युद्ध मे ईस वंश के वीरो ने सम्राट पृथ्वीराज चौहाण का साथ दिया था ऐसा बडवोँ द्वारा लिखे ईतिहास मे उल्लेख मिलता है.मोहम्मद घुरी को करारी हार का मजा चखा कर ईस वंश के रणबांकुरोँ ने घुरी को सम्राट के आगे नतमस्तक किया था.सन 1522 मे खानवा युद्ध मे ईन्होने महाराणा संग्राम सिँह जी उर्फ महाराणा सांगा को सहायता प्रदान की थी.सन 1398 मे जब तैमुर लंग समस्त पंजाब को रौंदता हुआ आंधी की तरह ईस क्षेत्र मे प्रविष्ट हुआ तो उसे स्थान स्थान पर करारी शिखस्त मिली.पोलड का वह स्थान आज भी ईन वीरोँ की बहादुरी को बयान करता है.असंध और सालवान मे भी मंडाडा ने तैमुर का डटकर मुकाबला किया.इतने बडे आक्रमण कारी,जिसने दिल्ली मे खुन की नदियाँ बहा दी थी,उसके जीवन की यह सबसे बडी हार थी.यही कारण था जिस वजह से तैमुर मेरठ से हरीद्वार के मार्ग से वापिस भागा था.बाबर के शासनकाल मे मोहन सिँह मंडाड ने असंख्य मुगलो को मौत की नीँद सुलाकर हिँदुत्व की रक्षा की थी.
                                                     औरंगजेब जैसे धर्मांध बादशहा के विरोध मे ईन्होने राठौडोँ को मार्ग दिखाया और दुर्गादास के संरक्षण मे कुँवर अजित सिँह को करनाल से घरौँडा और पानीपत के मार्ग से दिल्ली पहुँचाया.ब्रिटिश शासनकाल मे भी ईस वंश की वीरांगनाए कम नही है.कट्टर राष्ट्रधारा के कारण यह क्षेत्र हमेशा अंग्रेजोँ के आँखोँ का काँटा बना रहा.गांधीजी के असहयोग आंदोलन,भारत छोडोँ आंदोलन व अन्य सभी राष्ट्रीय आंदोलनो मे ईस वंश ने बढ चढकर भाग लिया.फलस्वरुप यहाँ के अनेक वीरोँ को अपने प्राणोँ की आहुती देनी पडीँ.वहाँ के लोकजीवन मे आज भी मंडाडा के वीरोँ की झलक मिलती है.
                                                     "मुस्लिम हो या गोरे,
                                                      उनसे खुब लढे मंडाडा के छोरे"
                                                       यह कहावत बहुत प्रसिद्द है.इसका भावार्थ यह है कि मडाड वंश जहाँ देश रक्षा के कार्यो मे सदैव आगे रहा वही अपने पडोसी चंद्रवंशी तंवर राज्य व अग्नीवंशी चौहाण राज्योँ को भी सदा सहायता प्रदान करते रहे.तभी यह वंश "बसे बडे मंडाडे" की उपाधी से सम्मानीत किया गया है.
अब ईस वंश के क्षत्रिय करनाल,कैथल,जीँद के लगभग 60 गांवो मे बसते है.इनके अलावा भिवानी,अंबाला,पंजाब के पटियाला,रोपड यु.पी के सहारनपुर,मेरठ,मुजफ्फरनगर और चंदीगढ मे भी इस वंश के लोग रहते है.


:-योगेश गर्ग/कलायत से


                                                  

कुम्भलगढ़

दुनिया की सबसे लम्बी दीवार है ग्रेट वाल ऑफ़ चाइना।यह दीवार दुनिया के सात अजूबों में शामिल है। चीन की इस दीवार के जैसी ही एक दीवार हमारे भारतवर्ष में भी है।यह दीवार मेवाड़ (राजस्थान) के कुम्भलगढ़ में स्थित है, अरावली पर्वत श्रृंखला में स्थित कुम्भलगढ़ किले की यह दीवार दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी दीवार है।

परम्पराओं की माने तो कुम्भलगढ़ का निर्माण दूसरी शताब्दी में हुआ था लेकिन ऐतिहासिक तथ्य सोलहवीं शताब्दी के मध्य में राणा कुम्भ के द्वारा इसके निर्माण की पुष्टि करते हैं।

1568 जब चित्तौड़ को हथियाने के बाद अकबर ने कुम्भलगढ़ पर कब्जा करना चाहा लेकिन वह असफल हो गया क्योंकि कुम्भलगढ़ के किले की इस दीवार पर सैन्य गतिविधियों के कारण अकबर के मंसूबे नाकामयाब होते रहे। 

अकबर के बाद उसके पुत्र सलीम ने भी इस किले को हासिल करना चाहा लाख कोशिशों के बाद भी वह इस किले को जीत नहीं पाया।जय जय वीर राजपूताना  (कुंवर अमित सिंह)

राजपूत हूँ मै!!

मैने चहु ओर विजय पताका लहराई!
मेरे नही शौर्य की!! नापी जा सकती गहराई!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
मैने आशुतोष का धनुष उठाया!
मैने गोवर्धन की जड हिलाई!!
ऐसा अपनी माँ का सपुत हुँ मै!
राजपूत हुँ मै!!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
मैने बंसी से महासंग्राम की गाथा गाई!
जिसमे असत्य ने की भरपाई!!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
मैने अन्योँ के लिए रक्त बहाया!
फिर मातृभु का भक्त कहलाया!!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
वृद्धोँ का रक्षक हुँ मै!
असुरोँ का भक्षक हुँ मै!!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
न्याय हेतु हलाहल मैने कंठ मे समाया!
मैने धर्म की नीती को अपनाया!!
ऐसा मातृभू का सपूत हुँ मै!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
मैने वीरता के नए आयाम बनाये!
मैने असूर राज के विरुद्द विद्रोह जगाये!!
कौन हुँ मै?
राजपूत हुँ मै!!
अंत मै प्रेम और शांती का संदेश फैलाया!
तब मै राजपूत कहलाया!!
:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

मेरे प्रभु (कविता)




मै नही जानती तेरे सारे रूपों को
हर वास्तु में विद्यमान आप है प्रभु
मिटटी से बने इस नश्वर तन को
ज्ञान की गंगा में डुबा दो प्रभु



झूठे जग के ,झूठे रिश्ते- नातो में
कितना फँसाओगे इस जीवन को
अब तो आत्मा को परमात्मा का
साक्षात्कार करा दो मेरे प्रभु

इस जीवन में जरूरत है आपकी
तेरी शरण में अब जिन्दगी है मेरी
जीवन के इन दुखो से निकाल कर
अपनी शरण में लगा लो प्रभु

जीव रूप को धारण किया है आत्मा ने
आवरण को छोड़ निकलती है आत्मा
फिर दुःख क्यों होता है इस जीवन में
चक्षु से आवरण का पर्दा हटा दो प्रभु



लेखिका-कुंवरानी मधु सिंह 

Friday, April 27, 2012

कविता: हल्दी घाटी का रण

 आओ वीरोँ और वीरांगनाओ!
कराता हुँ तुम्हे सैर हल्दिघाटी की!!
जहाँ आह निकले तुर्को के मुँह से!
वहाँ वाह निकली वीरो के मुख से!!
सन 1574 मे छेडी राणा उदय सिँहजी ने जंग!
किया तुर्को को दंग!!
हुई अकबर की नीँद भंग!
जब खडे हुए सहासी राजपूत वीर राणा के संग!!
1576 मे शुरु हुआ,
हल्दिघाटी मे रण!
राजा मान जीत लेगा ये जंग,
था अकबर को ऐसा भ्रम!!
न आया वो तुर्क रण,
डरता था वो प्रताप से जम!
जब राणा ने चलाया भाला,
चेतक को जब राणा ने उछाला!!
राजा मान जा दुबका,
महावत का शीष कटा!!
उछाल मे लगा,
चेतक के पग मे घाव!
न रुका वो सहकर घाव,
छाया राणा के मुख पर एक गहरा भाव!!
राणा को निकला जब चेतक रण से,
तब किया पिछा मुल्तान और खुरासण ने!
तब आए शक्ती सिँह महाराज,
दिया मुल्तान और खुरासण को आघाज!!
जब त्यागे चेतक ने अपने प्राण,
नही रहा राणा को भान!
ऐसा था वो हल्दीघाटी का रण महान,
जिसने बढाई राजपुताना की शान!!
कवी 'अक्षय' करे वीरो को नमन,
निकल जाएगा रण की तारीफ मे उसका यौवन!
पर न होगा खत्म हल्दीघाटी का रण!!
पर न होगा खत्म हल्दीघाटी का रण!!
:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

दिल्ली गान के रचयिता सुमित प्रताप सिंह




आदरणीय ब्लॉगर साथियो
सादर ब्लॉगस्ते! 
     पको पता है कि दिल्ली की स्थापना किसने की थीनहीं पताकिताब-विताब नहीं पढ़ते है क्याचलिए चूँकि मैंने इतिहास में एम.ए.किया है, तो कम से कम इतना तो मेरा फ़र्ज़ बनता ही है, कि आप सभी को इतिहास की थोड़ी-बहुत जानकारी दे सकूँ आइए इतिहास के पन्नों की तलाशी लेते हैं महाभारत युद्ध की पृष्ठ भूमि तैयार हो रही है कौरवों ने पांडवों को चालाकी से खांडवप्रस्थ देकर निपटा दिया है कौरवों के अन्याय को सहते हुए पांडवों ने अपने कठिन परिश्रम से खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ बना दिया है इस प्रकार इन्द्रप्रस्थ के रूप में दिल्ली के पहले शहर की स्थापना हो चुकी है महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है और अश्वत्थामा अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र छोड़कर अट्ठाहास कर रहा है, किन्तु जिस पर प्रभु श्री कृष्ण का आशीष हो, तो भला उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है श्री कृष्ण के आशीर्वाद से उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत बालक जीवित हो उठता है. बालक का नाम रखा जाता है परीक्षित (दूसरे की इच्छा से जीवित होने वाला) आगे बढ़ते हैं मध्यकाल का समय है उन्हीं राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय के वंशज अनंगपाल तोमर के स्वप्न में माता कुंती आती हैं और इंद्रप्रस्थ या कहें दिल्ली को राजधानी बनाकर अपने पूर्वजों का गौरव फिर से लौटाने का उनसे आग्रह करती है आइए वापस आधुनिक काल में  लौट आते हैं उसी तोमर वंश का एक युवा अपने पूर्वजों की कर्मभूमि दिल्ली के लिए दिल्ली गान की रचना करता है जी हाँ मैं बात कर रही हूँ सुमित प्रताप सिंह की सुमित प्रताप सिंह एक छोटे-मोटे हिन्दी ब्लॉगर हैं (मैं उनसे भी छोटी-मोटी हिन्दी ब्लॉगर हूँ) और हाल ही में दैनिक जागरण की "मेरा शहर मेरा गीत" नामक प्रतियोगिता में सुमित प्रताप सिंह का गीत “कुछ खास है मेरी दिल्ली में” चुना गया है और दिल्ली गान बन गया है
   सुमित प्रताप सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में हुआ इनकी प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में ही हुई व दिल्ली विश्व विद्यालय से इन्होनें इतिहास से स्नातक किया तथा कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गये यह कवि तो बचपन से ही थे, किन्तु पुलिस की कठिन ट्रेनिंग ने इन्हें हास्य कवि बना दिया मई, 2008 से इन्होंने 'सुमित के तड़के' नामक ब्लॉग पर शब्दों के तड़के लगाने आरंभ कर दिये 2012 का साल इनके लिए सौभाग्य लेकर आया और इनका गीत "कुछ ख़ास है मेरी दिल्ली में" दिल्ली गान चुना गया आइए बाकी बचा-खुचा इन्हीं से पूछ लेते है    

संगीता सिंह तोमर- सुमित प्रताप सिंह जी नमस्कार! कैसे हैं आप?

सुमित प्रताप सिंह- नमस्कार कलम घिस्सी जी! मैं ठीक हूँ आप कैसी हैं?
(आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरे ब्लॉग का नाम “कलम घिस्सी” है वैसे आप मुझे इस नाम से संबोधित करें तो कोई दिक्कत नहीं)

संगीता सिंह तोमर- जी आपकी कृपा से बिलकुल ठीक हूँ कुछ प्रश्न लाई हूँ आपके लिए

सुमित प्रताप सिंह- अभी तक तो अपन ही प्रश्नों की पोटली टाँगे फिरते रहते थे अब आपने यह संभाल ली. चलिए जो पूछना है पूछ डालिए
(आखिर छोटी बहन हूँ और इतना समझ सकती हूँ कि भैया जी को भी थकान होती हैं वैसे भी जिस प्रकार डॉक्टर अपना इलाज खुद नहीं कर पाता, उसी प्रकार अपना साक्षात्कार अब ये तो ले नहीं पाते, सो मैंने ही यह ज़िम्मेदारी संभाल ली वैसे भी सुमित भैया की कार्बन कॉपी यानि कि आपकी कलम घिस्सी से बेहतर उनका साक्षात्कार कौन ले पाएगा....खैर आगे बढ़ें?)
संगीता सिंह तोमर- सबसे पहले तो आपको दिल्ली गान लिखने के लिए बधाई आपका गीत दिल्ली गान बन चुका है अब आपको कैसा अनुभव हो रहा है?

सुमित प्रताप सिंह- शुक्रिया कलम घिस्सी बहना मुझे बहुत अच्छा अनुभव हो रहा है मैं अपनी दिल्ली के लिए कुछ कर पाया, इस बात का मुझे संतोष है
(धर्मराज युधिष्ठिर अपने वंशज अनंगपाल तोमर के संग सूरज कुंड में स्नान करते हुए दिल्ली गान गा रहे हैं)

संगीता सिंह तोमर- आप लिखते क्यों हैं? 

सुमित प्रताप सिंह- लोग अक्सर पूछते हैं कि मैं क्यों लिखता हूँ लिखना मेरे जीवन जीने का तरीका है और मैं जीने के लिए लिखता हूँ सोचता हूँ यदि मैं लिखता नहीं होता, तो शायद मैं अब तक नहीं होता अपने जीवन में मिली निराशा और असफलता से जूझने का हथियार है मेरा लेखन मैं विवशता में नहीं लिखता जब मन करता है तो लिखता हूँ और मन लिखने को मना करे तो बिल्कुल नहीं लिखता मैं उस भीड़ का हिस्सा बनने से बचता हूँ, जो बिना बात में निरंतर लिखती रहती है मेरे मन से जब आवाज आती है, तभी मैं लिखता हूँ मुझमें भी छपास की चाहत है, किन्तु यह दीवानगी की हद तक नहीं है मेरे लिखने का मकसद है, कि मेरे लिखने से समाज को कुछ मिले जब समाज मेरे लिखने से कुछ पा सकेगा तभी समझूंगा मैं वाकई में लिखता हूँ
(महाबली भीम अपने पोते परीक्षित के साथ इन्द्रपस्थ किले या कहें कि दिल्ली के पुराने किले के पीछे स्थित प्राचीन भैरव मंदिर में दिल्ली गान गाने में मस्त हैं)

संगीता सिंह तोमर– आपको  ब्लॉग लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

सुमित प्रताप सिंह– ब्लॉग लेखन का रोग एक कन्या के माध्यम से लगा आज चार वर्ष होने को हैं वह कन्या तो जाने किस लोक में लोप हो गई, किन्तु मुझ पर यह रोग पूरी तरह अधिकार जमा चुका है
(धनुर्धर अर्जुन अपने पड़पोते जनमेजय के संग इन्द्रप्रस्थ किले की प्राचीर पर खड़े हो अपने बाणों से आकाश में “कुछ खास है मेरी दिल्ली में” लिख रहे हैं)

संगीता सिंह तोमर– आपकी लेखन में सर्वाधिक प्रिय विधा कौन सी है?

सुमित प्रताप सिंह -लेखन में मेरी सर्वाधिक प्रिय विधा व्यंग्य है, किन्तु गीत, कविता व लघुकथा लेखन भी प्रिय विधाएँ हैं, जो कि मेरे हृदय में बसती हैं
(माता कुंती नकुल और सहदेव संग इन्द्रप्रस्थ किले में स्थित कुंती मंदिर में बैठी हुईं दिल्ली गान गुनगुना रही हैं)

संगीता सिंह तोमर– आप अपनी रचनाओं से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

सुमित प्रताप सिंह- संदेशइस देश में भला कोई संदेश पर ध्यान देता है क्या? फिर भी मैं इस कोशिश में रहता हूँ, कि मेरी रचनाओं से समाज को संदेश मिले, कि जीवन छोटा सा है इसलिए इसे हँसते-मुस्काते बिताया जाये समाज में फैली कुरीतियों को सोटा जमाने के लिए अब तो उठ कर खड़ा हो लिया जाए हर इंसान एक बात सोचे, कि उसने इस देश व समाज से जितना लिया है, कम से कम उसका 10 प्रतिशत तो लौटाने का प्रयास करें
(तोमर वंश के कुल देवता श्री कृष्ण अपनी बांसुरी पर दिल्ली गान की धुन बजा रहे हैं अरे देखिए उनके साथ आकाश में तोमरों के सभी पूर्वज एकत्र हो, अपने वंशज सुमित प्रताप सिंह को अपना आशीष दे रहे हैं)

संगीता सिंह तोमर– एक अंतिम प्रश्न “क्या हिंदी कभी विश्व की बिंदी बनेगी?

सुमित प्रताप सिंह- हिंदी अवश्य ही विश्व की बिंदी बनेगी और एक न एक दिन स्वाभिमान से तनेगी हम सभी हिंदीपूत ब्लॉगर तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक इसे इसका हक न दिला दें .....जय हिंद, जय हिंदी और जय दिल्ली!

(इतना कहकर सुमित प्रताप सिंह दिल्ली गान "कुछ ख़ास है मेरी दिल्ली में" गाने लगे और मैं भी उनके साथ सुर में सुर मिलाने लगी)
यदि सुमित प्रताप सिंह से जुड़ना हो तो उनका पेज http://www.facebook.com/authorsumitpratapsingh फेसबुक पर Like करें... 

Thursday, April 26, 2012

शराब :पीना खराब

कहते है लोग,
शराब है खराब !
मान लो जनाब,
खराब है शराब!

मत पियो शराब!
ये करेगी आपकी किडनी खराब!

ईसीने बर्बाद किये राज रजवाडे!
फिर भी आज ठाकुर अकडे!

न मिले ईससे कोई राहत!
ईससे सिर्फ बढे आफत!

मनुष्य से बन गए पशु!
पर दारु से कहते है,
मै तेरे लिए मरु!

युवा कहता है,अगर हो शराब,शबाब और कबाब!
तो पार्टी हो जाएगी यार लाजवाब!

कौन समझाए ईसे,
ये है नौजवान पीटे-घिसे!
नही बस चलता किसी पर कमीनो का,
भले ही मालिक हो वो जमीनो का!

दारु मे सब धन लुट गया,
जो था हमारे पुरखोँ का आशियाना तुट गया!
फिर भी लेते क्यो नही कोई सबक,
होती है ये मेरे दिल मे हरदम कसक!

कहानी होती है,
शराबीयोँ की गजब!
फिर पीकर करते कारनामे अजब!

कोई पीकर पीटता अपनी पत्नी को,
तो कोई छेडता लडकी को!
ईसके कारण होता है समाज शर्मसार,
पर ईनपर होता नही कीसी का भार!

मान लो प्यारे मेरी बात!
वरना मै ना हिचकीचाउँगा मारने मे लात!

"दारु छोडो,
बोतल तोडो,
घर जोडो!"

:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

!!लाल किले की दिवारो पर,ध्वज केसरीया अब लहरा दो!!

भौन मुख मंडल पर टेढी हुई,
नक्शा भुमंडल का बदल गया,
तलवार उठी जब हाथोँ मे,
दिल दुश्मन दल का दहल गया,
सिकंदर जैसो का विजय रथ,
ए क्षत्रिय तुने थाम दिया,
जब जब जरुरत आन पडी,
भारत माँ की ये पवित्र धरा,
महाराणा-शिवा के सपनो का बाग है,
लख-लख शिषो की भेँट चढा,
ईसे सोडीत धरा से सीँचा है,
वीर के ईस बाग को,
त्याग दे निज चिर निद्रा को,
ईतिहास क्षत्रियोँ का बिगडने न दे,
तुर्को के औलादोँ के,
षडयंत्रोँ की पहचान करो,
उठो जागो और रुकोँ नही,
सिँहासन तक प्रस्थान करो,
आतंक लुट के घोडो को,
निज भुजबल से अब ठहरा दो,
लाल किले की दिवारो पर,
ध्वज केसरीया अब लहरा दो,
दिल्ली की गद्दी पर अब तो,
क्षत्रिय परचम फहरा दो,
क्षत्रिय परचम फहरा दो,
लाल किले की दिवारो पर,
ध्वज केसरीया अब लहरा दो,
ध्वज केसरीया अब लहरा दो...

लेखक- कुँवर गोविन्द सिंह राठौर,दिल्ली

कविता: आखिर क्यों?


क्यूं पीते हो आखिर तुम शराब,
जब इस पे लिखा है साफ़-साफ़
कि मैं हूँ बहुत ख़राब ,
क्या मिलता है तुमको 
इसको पीने से ,
क्यूं प्यार नहीं है तुमको 

अपने जीने से ,


अपने बारे में न सही, 

अपने कुटुंब की तो सोचो ,
अगर पीकर इसको 

तुम न रहे तो 
वो क्या करेंगे?
कहाँ जायेंगे? 
पीने से पहले सौ बार 

उनके बारे में यह सोचो

कहते हो तुम कि 

मिलती है इससे तुमको राहत,
लेकिन राहत बन जाती है 

तुम्हारी और उनकी आफत ,
हाँ, इस लत को 

छोड़ पाना है बड़ा मुश्किल,,
पर क्या नहीं हो सकता 


यदि मजबूत कर जो दिल

''अमित'' की इस बात को 

मान कर दिल से सोचना
मिलता है क्या-क्या

जिंदगी में फिर देखना
 लेखक- कुंवर अमित सिंह 

Wednesday, April 25, 2012

रणचंडी

!! रणचंडी!!

रणचंडी मुझे आशिष दे,
अरी दल को मार भगाऊँ मै,
भारती का वीर सपूत बनु मै,
अरी कोखोँ को दहलाऊँ मै,
पग पग रीपु का जमघट हो,
ईसका काल कहाउ मै,
जहाँ गद्दारोँ की ध्वजा गडी,
वहाँ राजपूती ध्वज फराऊँ मै,
रणचंडी मुझे आशिष दे,
जो गौरव फैला महाराणा का,
उसका मान रखु मै,
जो बलिदान दिए रणवीरोँ ने,
उनकी लाज बचाउ मै,
जो लुट रही शासन सत्ताओ मे,
ईनका अपयश फैलाउ मै,
गऊ,गंगा और गीता का,
वो युग स्वर्णिम लौटाउ मै,
रणचंडी मुझे आशिष तो दे..
जय जय माँ भारती!!
:-कुँवर गोविँद सिँह राठौड

मेरी प्रतिग्या

मेरी प्रतिग्या

अपुर्ण युद्धो को आज पुर्ण करु,
आज मै रण करु..,
नया एक प्रण करु..,

मै दिव्य गुणोँ से ओतप्रोत राजपुत हुँ!
अपनी माँ का मैँ सच्चा सपुत हुँ!

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

कर प्रण यह यल्गार भरुँ,
कपुतोँ का मै संहार करुँ,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

गउ,गीता और गंगा का मान बढाऊँ,
भारत को वो युग स्वर्णिम लौटाऊँ,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

संसार मे क्षत्रराज का ध्वज मै लहराऊँ,
प्रयासो को शासनधारीयो के मै निष्फल बनाऊँ,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

क्षत्रराज को पुन:स्थापित करना
मेरा एकमात्र लक्ष्य है,
सभी को ईस मार्ग पर प्रेरीत करना मेरा उद्देश्य है,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

धर्म के पथ पर चल अधर्म को मिटाना मेरा कर्तव्य है,
माँ के गौरव को विस्थापित करना मेरा ध्येय है,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

सदा रहुँगा मै,मेरे ईस प्रण पर कठोर,
निज धर्म के पालन मे रहुँगा मै सदा तत्पर,

आज मै रण करु,
नया एक प्रण करु..,

:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

कविता: बनो आधुनिक पर मत भूलो सनातन इतिहास


ओ राम मेरे कैसा 
गजब ये हो गया,
आजकल का रंग-ढंग 
कैसा अजब हो गया

जो वस्त्र होता था नीचा वो ऊँचा ,
और जो होना था ऊँचा वो नीचा हो गया,
जब तक ''जोकी'' लिखा न दिखे,
इनको आता चैन नहीं ,
अगर करे कोई टोका-टोकी 

ये हो जाते बेचैन

पूरी कविता को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें 

***शंखनाद***

***शंखनाद***

सुनो वीरो,माँ भारती ने तुम्हे आज पुकारा है!!
अब ईस धरा का बदलना नजारा है!!

आओ मिलकर शंखनाद करे!
ऐसी हो सेना के सारे भ्रष्ट डरे!!

जो बेडीयाँ माँ के कदमोँ मे है,
उन्हे आज तोडना है!
सारे राष्ट्रवादियोँ को एक कडी मे जोडना है!!

आओ मिलकर शंखनाद करे!
ऐसी हो सेना के सारे भ्रष्ट डरे!!

फिर नयी सुबह होगी,
यह प्रण हमारा है!
'राष्ट्रहित सद सर्वोपरी' यह हमारा नारा है!!

आओ मिलकर शंखनाद करे!
ऐसी हो सेना के सारे भ्रष्ट डरे!!

एक-एक नेता को,
अब देना पडे जवाब!
क्या क्या कर्म है,उनके लाजवाब!!

आओ मिलकर शंखनाद करे!
ऐसी हो सेना के सारे भ्रष्ट डरे!!

कोई नग्नता है रहा फैला !
तो कोई कर रहा है घोटाला!!

आज करे हम यह प्रण!
करेँगे राष्ट्सेवा हरदम!!

आओ मिलकर शंखनाद करे!
ऐसी हो सेना के सारे भ्रष्ट डरे!!

कवी 'अक्षय' लगा रहा है गुहार तुम्हे!
माँ भारती की वह सुना रहा है पुकार तुम्हे!!

सुनो वीरो,माँ भारती ने तुम्हे आज पुकारा है!!
अब ईस धरा का बदलना नजारा है!!

:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

||¤|| राष्ट्रगौरव क्रांतिसुर्य महाराणा प्रताप सिँह जी ||¤||

||¤|| राष्ट्रगौरव क्रांतिसुर्य महाराणा प्रताप सिँह जी ||¤||
९ मई १५४० को आपका जन्म हुआ!
सिसोदवंश को फिर एक कोहीनुर मिला!!

कुंभलगढ पर तोपोँ का गडगडाट हुआ!
महाराणी जावंताबाई और महाराणा उदय सिँहजी को एक रत्न मिला!!

नाम उसका प्रताप था!
नामानुरुप प्रखर उसका प्रताप था!!

१५७२ मे राज्यकारोभार सँभाला!
मुगलोँ को फिर दुविधा मे डाला!!

अकबर से हल्दिघाटी मे रण संग्राम किया!
अकबर का सेनापती मानसिँह अचंब हुआ!!

खाई आयुभर घास की रोटी!
ऐसा वो मेवाडी सिरमौर हुआ!!

गुलामी की जंजीरे नही थी उसे पसंद!
ईसी लिए किया तुर्को के खिलाफ रण प्रचंड!!

जिवन था उसका संघर्ष अखंड!
कहते है ईतिहास के खंड!!

था स्वामीभक्त चेतक उसका वहन!
जिसने बचाया प्रताप को कर घावोँ को सहन!!

क्रांती की ज्योत जीवन भर रखी जलाई!
की आखिरी दम तक राष्ट्र की भलाई!!

था उसका अद्भुत शौर्य!
था वो क्रांती का सुर्य!!

उसका था तेज समान पौरव!
तो फिर क्यो न कहे महाराणा प्रतापसिँहजी को राष्ट्रगौरव!!

राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिँहजी को शत शत नमन एवं भावपुर्ण आदरांजली...

:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिन्दादिल'

Tuesday, April 24, 2012

कविता: मैं क्षत्राणी आई हूँ


सीता माता

मै दुर्गा की ज्येष्ठ पुत्री,क्षात्र-धर्म की शान रखाने आई हूँ !

मै सीता का प्रतिरूप ,सूर्य वंश की लाज रखाने आई हूँ!1!
मै कुंती की अंश लिए ,चन्द्र-वंश को धर्म सिखाने आई हूँ !

मै सावित्री का सतीत्त्व लिए, यमराज को भटकाने आई हूँ !२!

मै विदुला का मात्रत्व लिए, तुम्हे रण-क्षेत्र में भिजवाने आई हूँ !

मै पदमनी बन आज,फिर से ,जौहर की आग भड़काने आई हूँ !३!
मै द्रौपदी का तेज़ लिए , अधर्म का नाश कराने आई हूँ !

मै गांधारी बन कर ,तुम्हे सच्चाई का ज्ञान कराने आई हूँ !४!

मै कैकयी का सर्थीत्त्व लिए ,तुम्हे असुर-विजय कराने आई हूँ !

मै उर्मिला बन ,तुम्हे तम्हारे क्षत्रित्त्व का संचय कराने आई !५!
मै शतरूपा बन ,तुम्हे सामने खडी , प्रलय से लड़वाने आई हूँ!

मै सीता बन कर ,फिर से कलयुगी रावणों को मरवाने आई हूँ!६!

मै कौशल्या बन आज ,राम को धरती पर पैदा करने आई हूँ !

मै देवकी बन आज ,कृष्ण को धरती पर पैदा करने आई हूँ !७!

मै वह क्षत्राणी हूँ जो, महा काळ को नाच नचाने आई हूँ !

मै वह क्षत्राणी हूँ जो ,तुम्हे तुम्हारे कर्तव्य बताने आई हूँ !८! 


मै मदालसा का मात्रत्त्व लिए, माता की माहिमा,दिखलाने आई हूँ !
मै वह क्षत्राणी हूँ जो ,तुम्हे फिर से स्वधर्म बतलाने आई हूँ !९!
हाँ तुम जिस पीड़ा को भूल चुके, मै उसे फिर उकसाने आई हूँ !

मै वह क्षत्राणी हूँ ,जो तुम्हे फिर से क्षात्र-धर्म सिखलाने आई हूँ !१०!
"जय क्षात्र-धर्म " 

लेखिका-   कुंवरानी निशा नारुका   

!!क्षत्रिय!!

!!क्षत्रिय!!


रक्षा मेरा कर्म है!

 त्याग मेरा धर्म है!!
विजयश्री मेरा लक्ष्य है!

 पथ मेरा सत्य है!!

जन्म लेता हुँ मै!
किसी उद्देश्य से!!
सभी को राष्ट्रभक्ती का!
देना आज उपदेश है!!

ईस उपदेश पर!
सदा रहता मै कठोर!!
करता मै ईसका नित पालन!
मातृ-भु के लिए , प्रेम बटौर!!

निज-स्वार्थ से रहता मै कोसोँ दुर!
यही है हम क्षत्रियो का नूर!!

धर्म की बलिवेदी पर!
दी पुर्वजोँ ने हमारे जान!!
तो क्योँ हम न रखे कोई कसर?
बढाने मे उनका मान!!

प्रगती के पथ पर चलना है सदा!
चाहे आए कोई भी बाधा!!

झुठी प्रगती से है न,
कोई लेना देना!
कहे ईस दुनिया के पक्षी सबसे सुंदर राघो-मैना!!

जब जब हम उतरे है रण!
कहे धरणी का कण कण!!
कर मुझे ईस क्षत से!
हे धरती पुत्र तु मक्त!!
 

:-'अक्षय' कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया 'जिँदादिल'

समाज हित में एक मुक्त चिंतन.....!

समाज हित में एक मुक्त चिंतन.....!

समाज हित में एक मुक्त चिंतन.....!
                            अगर हमें कुछ काम करना है तो वो है की हमें अपना जीवन बदलना
पड़ेगा हमें क्या अच्छा लगता है या लगा है ये बात हमें ओरो पर थोपना बंद करना है !
 हमें शास्त्र से सिध्ध की गयी बातो को अपनी आचारसंहिता (पोलिसी )बनाना है अगर हम ऐसा कर सकते है तो हमारी एकता संभव है.क्योंकि अगर हम गलत विषय या व्यक्ति की प्रसंशा करते है
 तो स्वाभाविक जो लोग नैतिकता और नीतिमत्ता में मानते है
                            वो हमारे साथ नहीं रहेंगे और फिरतो हमारी संगठन शक्ति मजबूत होना संभव नहीं है !सबसे प्रथम हमें हमारी दिशा तय करनी है की हमें करना क्या है? उसके बाद उसके लिए क्याकरना चाहिए? ,कैसे करना चाहिए ?,क्यूँ करना चाहिए ?,ये सोचना है,उसके बाद एक संविधान बनाना है वो
 ऐसा हो की उसमे बदल करना जरुरी न हो ,(समय के साथ बदलाव अगर जरुरी हो तो करना पड़े मगर फिर ऐसान हो की अपनी सहूलियत के लिए बार बार उसमे बदलाव लाते रहे जैसे की हमारासंविधान है !
शाशको ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए इतने संसोधन किये है कीमूल संविधान क्या था येही पता नहीं चलता ,हम अगर इतिहास की और देखेंगे तो हमें पता चलेगा की जब तक आचारसंहिता नहीं बदली थी हमें कोई रोकनेवाला या टोकने वाला नहीं था मगर एक बार हमने निजी स्वार्थ या किसी कारन वश उसमे बदलाव को मोका दिया की हमारी पहचान ही खतरे में पड गई ?
                             आज जय राजपुताना, और राजपूत के बारे में कई बाते पढने को और देखने को मिलती है लेकिन हमारे पुर्वोजोकी जो सिध्धिया थी और उन सिध्धियो को उन्होंने जिस तरह सम्हाला था उस में से हम क्या सीखे ? क्या जानते है हम उनकी जीवनशैली के बारेमे,उनकी तपश्चर्या के बारे में ,उनके त्याग के बारे में ,उनके बलिदान के बारे में,उनकी प्रेरणा के बारे मे,? खास करके आज का युवा जो राजपूत होने का गर्व करता है क्या वो नियमिततन ,मन ,धन ,की पवित्रता के लिए कुछ करता है !!
:-सोलंकी नरेंद्र सिंह

"राजपुताना का कर्ज"


"राजपुताना का कर्ज"
जिनकी रगोँ मे दौड रहा है,
लहु अरुण राजपुताना का,
 हिलोरे लेता शौर्य दिलोँ मे,
पराक्रम जिनका महाराणा सा,
थोडा सा अनुरोध है हमारा,
उन क्षत्रिय वीरोँ और विरांगनाओ से,
आओ मिलकर वृण चुकाए श्री राजपुताना का....!
 क्योँ आज हम होते जा रहे है अपने कर्तव्यो से विमुढ?
यह बन गया है एक रहस्य गुढ...!
जिनको दिलो मेँ है जन्मजात राणा सी ज्वाला,
 नही चलता खुद पर ही उन्ही का वश भला...!
 आइए मिलकर विचार करे केईसके क्या है कारण?
 फिर करे ईन सभी का तारण...!
: -कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया

एक मुक्त चिँतन.....!


एक मुक्त चिँतन.....!
जैसा के आप सभी जानते है की आज की युवा पिढी अपने कर्तव्य एवं संस्कारोँ से दुर होती जा रही है,वही दुसरी और युवा वर्ग मे कुतसित विचारोँ का प्रमाण बढ गया है...!आज का युवा कई व्यसनोँ के आधीन होता जा रहा है...!शराब,शबाब ,कबाब ये सारे शौख आज का युवा अपनी किशोरावस्था मे ही शुरु कर देता है.....!सिगारेट ,दारु,सिगार ये सारे व्यसन ईनके लिए पुराणे हो चुके है....("मै भी कभी सिगारेट के व्यसन का आधीन रह चुका हुँ")....कालांत र मेँ व्यसन भी उच्च प्रती केहो चुके है जैसे गांजा,चरस,अफीम आदि...जब ये सिगारेट पीते है तो एसा प्रतित होता है की कितनी फँक्ट्रियोँ का मालक है और कितनी नही....खैर वो बात अलग है की घर मे एक वक्त की रोटी मुनासिब नही होती ईन्हे......!शरा ब के व्यसन ने कई घर परीवार उजाड दिये पर हमने आज तक उससे कोई सबक नही लिया है....!स्वर्णिम ईतिहास और संस्कृति का अनमोल धन हमारे पास है और ईसका अगर हमे गर्व है तो वह गर्व पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हमारा गर्व कहा जाता है...?ईन व्यसनोँ के आधीन होकर हमने प्रगति के पथ को छोडकर दुर्गती के पथ को चुना है...,जिससे आनेवाली नस्लोँ को हमहमारे पुर्वजोँ की महान विरासत से कुछ भी न दे पाएंगे....!आईए मिलकर शपथ ले की ईन व्यसनोँ के आधिन न होकरईन्हे समाज से निष्कषित करेँ....!प्रस्त ुत है भ्राता अरविँद सिँह शक्तावत,खोडियाख ेरा की एक रचना
दारु पीणो छोड दो हुकुम,
दारु मे सब धन ग्यो पण अणां बोतलां ने नी फोड्या,
मनख सु पशु वेग्या पण हुकुम दारु पीणो नी छोड्या,
पण आपणे केईन कांई करनो..?
दारु ने आप अरोग्या,
पण दारु आपने अरोगगी,
दारु मे राज पराग्या,
पण ठाकरां री अकड नी गी,
पण आपणे केईन कांइ करनो..?
दारु मे रजपुत डुब्या,
बोटी वेगी तलवार री,
धार कलाळां रा घर बणग्या,
न कमीण वेग्या रे नार,
पण आपणे केइन कांइ करणो..?
दारु मे वंट तो निकल ग्यो,
पण रेगइ खाली डोपर,
घर मे उन्दरा करै अमावस,
पण बन्नासा बणै लोफर,
पण आपणे केइन कांइ करणो..?
दारु पीणो छोड दो हुकुम,
मानो मेवाडी सरदार रो केणो,
देख जमानो सुधरे जावै,
वरना म्हारे काइ लेणो देणो..?
पण आपणे केइन काइ करणो..?
(यह सभी मेरे निजी विचार है,जो मैने गंभीरता से आपके सामने,कृपया ईनपर विचार कर अमल करेँ,लाईककी कोई खास अपील नही है)
:-कुँवर विश्वजीत सिँह सिसोदिया
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