उस ऊँचे पहाड़ पे,
तनकर खड़े उस
दुर्ग की,
सबसे ऊँची
अट्टालिका के ,
चमकते कंगूरे
सा है हमारा अतीत |
है कायम अस्तित्व
यूँही नहीं ,
बिछे हैं बरसों तक ,
उसकी नींव में,
परत-दर-परत
बलिदानों के
सिलसिले |
मगर....
अब क्यों ?
सुस्त है तू क्षत्रिय !
त्याग अकर्मण्यता ,
कुछ विचार कर ...
झुकने लगी
तनकर खड़ी
गगनभेदी
अट्टालिकाएं .....
"विक्रम" ( Ak Rajput )
सुन्दर रचना...
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