हाँ !
में हूँ,
इस धरोहर
का उत्तराधिकारी !
सींचा था मेरे पुरखों ने
जिसे अपने
ही रक्त
से.
और !
बचाकर
रखा था जिसे,
लिखकर "क्षत्रिय" धरा पे,
दुश्मन
के रक्त
से .
में
प्रहरी हूँ
क्षत्रिय संस्कारों की
इस अथाह दौलत का ,नीवं में
जिसकी जौहर और शाका
का पाषाण पिंघला
कर डाला था
मेरे अपनों
ने .
मुझे
फिर से
पाना है उस रुतबे को
और छिनना है वक़्त के जबड़ों से
उस खोये सम्मान को
पाने को जिसे
गुजारी थी उम्र
युद्धों
में
मुझे
ReplyDeleteफिर से
पाना है उस रुतबे को
और छिनना है वक़्त के जबड़ों से
उस खोये सम्मान को
पाने को जिसे
गुजारी थी उम्र
युद्धों
में
उत्तम संकल्प